Monday, July 15, 2013

वफा करने की सजा....

तुमने क्या समझा.....
जो इतना सितम करते चले गए,
मुझे पत्थर समझा था क्या....
मै भी तो इंसान ही था
कोई साया थोड़े ही था जिसे दर्द ना महसूस हो...

वफा करने की सजा....
कोई भला ऐसे देता है क्या,
राह के बीच अपने को कोई,
इस तरह भी छोड़ देता है क्या.....

मै तो तलबगार सिर्फ अपनेपन का ही तो था.....
फिर कहा रखा तुमने वो अपनापन,
बताओ तो किसने छिन लिया उसे तुमसे....

ऐसा भी क्या.....
जिसकी वजह से...
सूने अंधियारों मे मुझे तड़पता छोड़ दिया....

मेरी खामोश निगाहों और उदास चेहरे,
को देखकर भी
कैसे तुम चले गए थे.....

यही ना के.....
खुद बे खुद
ये अपना अस्तितव मिटा लेगा.....

मगर तुम कितने गलत थे.......

देखो....तुम्हारे दिये जख्मो ने
आज मुझे कितना मजबूत बना दिया है,
उन अंधियारे गलियारो को मैंने
रोशन कर लिया है......

अब कोई दर्द नहीं देता मुझको,
क्योकि अपने और परायों को....
मैंने पहचान जो लिया है...........



बादल


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